भावपाहुड गाथा 12
From जैनकोष
आगे देवगति के दु:खों को कहते हैं -
सुमरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं ।
संपत्तो सि महाजस दु:खं सुहभावणारहिओ ।।१२।।
सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसं तीव्र् ।
संप्राप्तोsसि महायश ! दु:खं शुभभावनारहित: ।।१२।।
हे महायश सुरलोक में परसंपदा लखकर जला ।
देवांगना के विरह में विरहाग्नि में जलता रहा ।।१२।।
अर्थ - हे महायश ! तूने सुरनिलयेषु अर्थात् देवलोक में सुराप्सरा अर्थात् प्यारे देव तथा प्यारी अप्सरा के वियोगकाल में उसके वियोग संबंधी दु:ख तथा इन्द्रादिक बड़े ऋद्धिधारियों को देखकर अपने को हीन मानने के मानसिक तीव्र दु:खों को शुभभावना से रहित होकर पाये हैं ।
भावार्थ - यहाँ `महायश' इसप्रकार सम्बोधन किया । उसका आशय यह है कि जो मुनि निर्ग्रन्थलिंग धारण करे और द्रव्यलिंगी मुनि की समस्त क्रिया करे, परन्तु आत्मा के स्वरूप शुद्धोपयोग के सन्मुख न हो उसको प्रधानतया उपदेश है कि मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य किया, तेरा यश लोक में प्रसिद्ध हुआ, परन्तु भली भावना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व के अभ्यास बिना तपश्चरणादिक करके स्वर्ग में देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयों का लोभी होकर मानसिक दु:ख से ही तप्तायमान हुआ ।।१२।।