भावपाहुड गाथा 125
From जैनकोष
आगे ध्यान है वह, `ज्ञान का एकाग्र होना' है, इसलिए ज्ञान के अनुभव करने का उपदेश करते हैं -
णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण ।
वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ।।१२५।।
ज्ञानमयविमलशीतलसलिलं प्राप्य भव्या: भावेन ।
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ता: शिवा: भवन्ति ।।१२५।।
आनन्दमय मृतु जरा व्याधि वेदना से मुक्त जो ।
वह ज्ञानमय शीतल विमल जल पियो भविजन भाव से ।।१२५।।
अर्थ - भव्यजीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल को सम्यक्त्वभाव सहित पीकर और व्याधिरूप जरा-मरण की वेदना (पीड़ा) को भस्म करके मुक्त अर्थात् संसार से रहित `शिव' अर्थात् परमानन्द सुखरूप होते हैं ।
भावार्थ - जैसे निर्मल और शीतल जल के पीने से पित्त की दाहरूप व्याधि मिटकर साता होती है वैसे ही यह ज्ञान है वह जब रागादिक मल से रहित निर्मल और आकुलता रहित शांतभावरूप होता है, उसकी भावना करके रुचि, श्रद्धा, प्रतीति से पीवे, इससे तन्मय हो तो जरा-मरणरूप दाह-वेदना मिट जाती है और संसार से निर्वृत्त होकर सुखरूप होता है, इसलिए भव्यजीवों को यह उपदेश है कि ज्ञान में लीन होओ ।।१२५।।