भावपाहुड गाथा 126
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि इस ध्यानरूप अग्नि से संसार के बीज आठों कर्म एकबार दग्ध हो जाने पर पीछे फिर संसार नहीं होता है, यह बीज भावमुनि के दग्ध हो जाता है -
जह बीयम्मि य दड्ढे ण वि रोहइ अंकुरो य महिवीढे ।
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ।।१२६।।
यथा बीजे च दग्धे नापि रोहति अंकुरश्च महीपीठे ।
तथा कर्मबीजदग्धे भवांकुर: भावश्रमणानाम् ।।१२६।।
ज्यों बीज के जल जाने पर अंकुर नहीं उत्पन्न हो ।
कर्मबीज के जल जाने पर न भवांकुर उत्पन्न हो ।।१२६।।
अर्थ - जैसे पृथ्वी तल पर बीज के जल जाने पर उसका अंकुर फिर नहीं उगता है, वैसे ही भावलिंगी श्रमण के संसार का कर्मरूपी बीज दग्ध होता है, इसलिए संसाररूप अंकुर फिर नहीं होता है ।
भावार्थ - संसार के बीज `ज्ञानावरणादि' कर्म हैं । ये कर्म भावश्रमण के ध्यानरूप अग्नि से भस्म हो जाते हैं, इसलिए फिर संसाररूप अंकुर किससे हो ? इसलिए भावश्रमण होकर धर्मशुक्लध्यान से कर्मो का नाश करना योग्य है, यह उपदेश है । कोई सर्वथा एकांती अन्यथा कहे कि कर्म अनादि है, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निषेध है । बीज अनादि है, वह एक बार दग्ध हो जाने पर पीछे फिर नहीं उगता है, उसी तरह इसे जानना ।।१२६।।