भावपाहुड गाथा 128
From जैनकोष
आगे फिर भी इसी का उपदेश अर्थरूप संक्षेप से कहते हैं -
तित्थयरगणहराइं अब्भुदयपरंपराइं सोक्खाइं ।
पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं ।।१२८।।
तीर्थंकरगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि ।
प्राप्नुवंति भावश्रमणा: संक्षेपेण जिनै: भणितम् ।।१२८।।
भाव से जो हैं श्रमण जिनवर कहें संक्षेप में ।
सब अभ्युदय के साथ ही वे तीर्थकर गणधर बनें ।।१२८ ।।
अर्थ - जो भावसहित मुनि हैं, वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर-गणधर आदि पदवी के सुखों को पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है ।
भावार्थ - तीर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदों के सुख बड़े अभ्युदयसहित हैं, उनको भावसहित सम्यग्दृष्टि मुनि पाते हैं । यह सब उपदेश का संक्षेप से उपदेश कहा है, इसलिए भावसि हत मुनि होना योग्य है ।।१२८।।