भावपाहुड गाथा 133
From जैनकोष
आगे अहिंसाधर्म के उपदेश का वर्णन करते हैं -
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं ।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं ।।१३३।।
२षट्जीवान् षडायतनानां नित्यं मनोवचनकाययोगै: ।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्वं महासत्त्वम् ।।१३३।।
छह काय की रक्षा करो षट् अनायतन को त्यागकर ।
और मन-वच-काय से तू ध्या सदा निज आतमा ।।१३३।।
अर्थ - हे मुनिवर ! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतनों को मन, वचन, काय के योगों से छोड़ तथा अपूर्व जो पहिले न हुआ ऐसा महासत्त्व अर्थात् सब जीवों में व्यापक (ज्ञायक) महासत्त्व चेतना भाव को भा ।
भावार्थ - अनादिकाल से जीव का स्वरूप चेतनास्वरूप न जाना इसलिए जीवों की हिंसा की, अत: यह उपदेश है कि अब जीवात्मा का स्वरूप जानकर, छहकाय के जीवों पर दया कर । अनादि ही से आप्त, आगम, पदार्थ का और इनकी सेवा करनेवालों का स्वरूप जाना नहीं, इसलिए अनाप्त आदि छह अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं, उनको अच्छे समझकर सेवन किया, अत: यह उपदेश है कि अनायतन का परिहार कर । जीव के स्वरूप के उपदेशक - ये दोनों ही तूने पहिले जाने नहीं, न भावना की, इसलिए अब भावना कर, इसप्रकार उपदेश है ।।१३३।।