भावपाहुड गाथा 14
From जैनकोष
आगे द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होते हैं, उनको कहते हैं -
पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ ।
भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभावबीएहिं ।।१४।।
पार्श्वस्थभावना: अनादिकालं अनेकवारान् ।
भावयित्वा दु:खं प्राप्त: कुभावनाभावबीजै: ।।१४।।
पार्श्वस्थ आदि कुभावनायें भवदु:खों की बीज जो ।
भाकर उन्हें दुख विविध पाये विविध बार अनादि से ।।१४।।
अर्थ - हे जीव ! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकाल से लेकर अनन्तबार भाकर दु:ख को प्राप्त हुआ । किससे दु:ख पाया ? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव - वे ही हुए दु:ख के बीज, उनसे दु:ख पाया ।
भावार्थ - जो मुनि कहलावे और वस्तिका बांधकर आजीविका करे उसे पार्श्वस्थ वेषधारी कहते हैं । जो कषायी होकर व्रतादिक से भ्रष्ट रहे, संघ का अविनय करे इसप्रकार के वेषधारी को कुशील कहते हैं । जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्र की आजीविका करे, राजादिक का सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारी को संसक्त कहते हैं । जो जिनसूत्र से प्रतिकूल, चारित्र से भ्रष्ट आलसी इसप्रकार वेषधारी को `अवसन्न' कहते हैं । गुरु का आश्रय छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञा का लोप करे ऐसे वेषधारी को `मृगचारी' कहते हैं । इनकी भावना भावे वह दु:ख ही को प्राप्त होता है ।।१४।।