भावपाहुड गाथा 141
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हुए ऐसे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व से मोहित जीव संसार में भ्रमण करता है -
इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो ।
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि ।।१४१।।
इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रै: मोहित: जीव: ।
भ्रमित: अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय ।।१४१।।
कुनय अर कुशास्त्र मोहित जीव मिथ्यावास में ।
घूा अनादिकाल से हे धीर ! सोच विचार कर ।।१४१।।
अर्थ - इति अर्थात् पूर्वोक्तप्रकार मिथ्यात्व का आवास (स्थान) यह मिथ्यादृष्टियों का संसार उसमें कुनय अर्थात् सर्वथा एकान्त, उस सहित कुशास्त्र उनसे मोहित (बेहोश) हुआ यह जीव अनादिकाल से लगाकर संसार में भ्रमण कर रहा है, ऐसे हे धीर मुने ! तू विचार कर ।
भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि पूर्वोक्त तीन सौ तरेसठ कुवादियों से सर्वथा एकांतपक्षरूप कुनय द्वारा रचे हुए शास्त्रों से मोहित होकर यह जीव संसार में अनादिकाल से भ्रमण करता है सो हे धीर मुनि ! अब ऐसे कुवादियों की संगति भी मत कर, यह उपदेश है ।।१४१।।