भावपाहुड गाथा 143
From जैनकोष
आगे सम्यग्दर्शन का निरूपण करते हैं, पहिले कहते हैं कि ``सम्यग्दर्शनरहित प्राणी चलता हुआ मृतक है -
जीवविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होइ चलसबओ ।
सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ ।।१४३।।
जीवविमुक्त: शव: दर्शनमुक्तश्च भवति चलशव: ।
शव: लोके अपूज्य: लोकोत्तरे चलशव: ।।१४३।।
अरे समकित रहित साधु सचल मुरदा जानियें ।
अपूज्य है ज्यों लोक में शव त्योंहि चलशव मानिये ।।१४३।।
अर्थ - लोक में जीवरहित शरीर को `शव' कहते हैं, `मृतक' या `मुरदा' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित पुरुष `चलता हुआ मृतक' है । मृतक तो लोक में अपूज्य है, अग्नि से जलाया जाता है या पृथ्वी में गाड़ दिया जाता है और दर्शनरहित चलता हुआ `मुरदा' लोकोत्तर जो मुनिसम्य ग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उसको वंदनादि नहीं करते हैं । मुनिभेष धारण करता है तो भी उसे संघ के बाहर रखते हैं अथवा परलोक में निंद्य गति पाकर अपूज्य होता है ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है ।।१४३।।