भावपाहुड गाथा 158
From जैनकोष
आगे फिर ऐसे मुनियों की महिमा करते हैं -
मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुवरम्मि आरूढा ।
विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं ।।१५८।।
मायावल्लीं अशेषां मोहमहातरुवरे आरूढाम् ।
विषयविषपुष्पपुष्पितां लुनंति मुनय: ज्ञानशस्त्रै: ।।१५८।।
पुष्पित विषयमय पुष्पों से अर मोहवृक्षारूढ़ जो ।
अशेष माया बेलि को मुनि ज्ञानकरवत काटते ।।१५८।।
अर्थ - माया (कपट) रूपी बेल जो मोहरूपी महा वृक्ष पर चढ़ी हुई है तथा विषयरूपी विष के फूलों से फूल रही है, उसको मुनि ज्ञानरूपी शस्त्र से समस्ततया काट डालते हैं अर्थात् नि:शेष कर देते हैं ।
भावार्थ - यह मायाकषाय गूढ़ है, इसका विस्तार भी बहुत है, मुनियों तक फैलती है, इसलिए जो मुनि ज्ञान से इसको काट डालते हैं वे ही सच्चे मुनि हैं, वे ही मोक्ष पाते हैं ।।१५८।।