भावपाहुड गाथा 16
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि अशुभ भावना से नीच देव होकर ऐसे दु:ख पाते हैं, ऐसे कहकर इस कथन का संकोच करते हैं -
चउविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो ।
होऊण कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ ।।१६।।
चतुर्विधविकथासक्त: मदमत्त: अशुभभावप्रकटार्थं: ।
भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्त: असि अनेकवारान् ।।१६।।
चतुर्विध विकथा कथा आसक्त अर मदमत्त हो ।
यह आतमा बहुबार हीन कुदेवपन को प्राप्त हो ।।१६।।
अर्थ - हे जीव ! तू चार प्रकार की विकथा में आसक्त होकर, मद से मत्त और जिसके अशुभ भावना का ही प्रकट प्रयोजन है, इसप्रकार होकर अनेकबार कुदेवपने को प्राप्त हुआ ।
भावार्थ - स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा इन चार विकथाओं में आसक्त होकर वहाँ परिणाम को लगाया तथा जाति आदि आठ मदों से उन्मत्त हुआ ऐसी अशुभ भावना ही का प्रयोजन धारण कर अनेकबार नीच देवपने को प्राप्त हुआ, वहाँ मानसिक दु:ख पाया । यहाँ यह विशेष जानने योग्य है कि विकथादिक से तो नीच देव भी नहीं होता है, परन्तु यहाँ मुनि को उपदेश है, वह मुनिपद धारण कर कुछ तपश्चरणादिक भी करे और वेष में विकथादिक में रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१६।।