भावपाहुड गाथा 162
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि मोक्ष का सुख भी ऐसे ही पाते हैं -
सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं ।
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ।।१६२।।
शिवमजरामरलिंगं अनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् ।
प्राप्तो वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवा: ।।१६२।।
जो अमर अनुपम अतुल शिव अर परम उत्तम विमल है ।
पा चुके ऐसा मुक्ति सुख जिनभावना भा नेक नर ।।१६२।।
अर्थ - जो जिनभावना से भावित जीव हैं वे ही सिद्धि अर्थात् मोक्ष के सुख को पाते हैं । कैसा है सिद्धि सुख ? `शिव' है, कल्याणरूप है, किसीप्रकार उपद्रव सहित नहीं है, `अजरामरलिंग' है अर्थात् जिसका चिह्न वृद्ध होना और मरना इन दोनों से रहित है, `अनुपम' है जिसको संसार के सुख की उपमा नहीं लगती है, `उत्तम' (सर्वोत्तम) है, `परम' (सर्वोत्कृष्ट) है, महार्घ्य है अर्थात् महान् अर्घ्य पूज्य प्रशंसा के योग्य है, `विमल' है कर्म के मल तथा रागादिकमल से रहित है । `अतुल' है, इसके बराबर संसार का सुख नहीं है, ऐसे सुख को जिनभक्त पाता है, अन्य का भक्त नहीं पाता है ।।१६२।।