भावपाहुड गाथा 163
From जैनकोष
आगे आचार्य प्रार्थना करते हैं कि जो ऐसे सिद्धसुख को प्राप्त हुए सिद्ध भगवान् वे मुझे भावों की शुद्धता देवें -
ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिच्चा ।
दिंतु वरभावसुद्धिं दंसण णाणे चरित्ते य ।।१६३।।
ते मे त्रिभुवनसहिता: सिद्धा: सुद्धा: निरंजना: नित्या: ।
ददतु वरभावशुद्धिं दर्शने ज्ञाने चारित्रे च ।।१६३।।
जो निरंजन हैं नित्य हैं त्रैलोक्य महिमावंत हैं ।
वे सिद्ध दर्शन-ज्ञान अर चारित्र शुद्धि दें हमें ।।१६३।।
अर्थ - सिद्ध भगवान मुझे दर्शन-ज्ञान में और चारित्र में श्रेष्ठ उत्तमभाव की शुद्धता देवें । कैसे हैं सिद्ध भगवान ? तीन भुवन से पूज्य हैं, शुद्ध हैं अर्थात् द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप मल से रहित हैं, निरंजन है अर्थात् रागादि कर्म से रहित हैं, जिनके कर्म की उत्पत्ति नहीं है, नित्य हैं - प्राप्त स्वभाव का फिर नाश नहीं है ।
भावार्थ - आचार्य ने शुद्धभाव का फल सिद्ध अवस्था और जो निश्चय से इस फल को प्राप्त हुए सिद्ध, इनसे यही प्रार्थना की है कि शुद्धभाव की पूर्णता हमारे होवे ।।१६३।।