भावपाहुड गाथा 165
From जैनकोष
आगे इस भावपाहुड को पूर्ण करते हैं, इसके पढ़ने सुनने व भाव करने का (चिन्तन का) उपदेश करते हैं -
इय भावपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहि देसियं सम्मं ।
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं ।।१६५।।
इति भावप्राभृतमिदं सर्वबुद्धै: देशितं सम्यक् ।
य: पठति शृणोति भावयति स: प्राप्नोति अविचलंस् था न म् । । १ ६ ५ । ।
इस तरह यह सर्वज्ञ भासित भावपाहुड जानिये ।
भाव से जो पढ़ें अविचल थान को वे पायेंगे ।।१६५।।
अर्थ - इसप्रकार इस भावपाहुड का सर्वबुद्ध-सर्वज्ञदेव ने उपदेश दिया है, इसको जो भव्यजीव सम्यक्प्रकार से पढ़ते हैं, सुनते हैं और इसका चिन्तन करते हैं, वे शाश्वत सुख के स्थान मोक्ष को पाते हैं ।
भावार्थ - यह भावपाहुड ग्रंथ सर्वज्ञ की परम्परा से अर्थ लेकर आचार्य ने कहा है, इसलिए सर्वज्ञ का ही उपदेश है, केवल छद्मस्थ का ही कहा हुआ नहीं है, इसलिए आचार्य ने अपना कर्तव्य प्रधान कर नहीं कहा है । इसके पढ़ने सुनने का फल मोक्ष कहा, वह युक्त ही है, शुद्धभाव से मोक्ष होता है और इसके पढ़ने से शुद्धभाव होते हैं । (नोंध - यहाँ स्वाश्रयी निश्चय में शुद्धता करे तो निमित्त में शास्त्र पठनादि में व्यवहार से निमित्त कारण-परम्परा कारण कहा जाय । अनुपचार=निश्चय बिना उपचार=व्यवहार कैसा ?) इसप्रकार इसका पढ़ना, सुनना, धारणा और भावना करना परम्परा मोक्ष का कारण है । इसलिए हे भव्यजीवों ! इस भावपाहुड को पढ़ो, सुनो, सुनाओ, भावो और निरन्तर अभ्यास करो जिससे भाव शुद्ध हों और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पूर्णता को पाकर मोक्ष को प्राप्त करो तथा वहाँ परमानंदरूप शाश्वतसुख को भोगो । इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दनामक आचार्य ने भावपाहुडग्रंथ पूर्ण किया । इसका संक्षेप ऐसे है - जीवनामक वस्तु का एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतना स्वभाव १. `शुद्धभाव' का निरूपण दो प्रकार से किया गया है, जैसे `मोक्षमार्ग दो नहीं हैं' किन्तु उसका निरूपण दो प्रकार का है, इसीप्रकार शुद्धभाव को जहाँ दो प्रकार के कहे हैं, वहाँ निश्चयनय से और व्यवहारनय से कहा है - ऐसा समझना चाहिए । निश्चय सम्यग्दर्शनादि है उसे ही व्य. मान्य है और उसे ही निरतिचार व्यवहार रत्नत्रयादिक में व्यवहार से `शुद्धत्व' अथवा `शुद्ध संप्रयोगत्व' का आरोप आता है, जिसको व्यवहार में `शुद्धभाव' कहा है, उसी को निश्चय अपेक्षा अशुद्ध कहा है-विरुद्ध कहा है, किन्तु व्यवहारनय से व्यवहारविरुद्ध नहीं है । है । इसकी शुद्ध, अशुद्ध दो परिणति हैं । शुद्ध दर्शन-ज्ञानोपयोगरूप परिणमना `शुद्धपरिणति' है, इसको शुद्धभाव कहते हैं । कर्म के निमित्त से राग-द्वेष-मोहादिक विभावरूप परिणमना `अशुद्ध परिणति' है, इसको अशुद्धभाव कहते हैं । कर्म का निमित्त अनादि से है, इसलिए अशुद्धभावरूप अनादि ही से परिणमन कर रहा है । इस भाव से शुभ-अशुभ कर्म का बंध होता है, इस बंध के उदय से फिर शुभ या अशुभ भावरूप (अशुद्धभावरूप) परिणमन करता है, इसप्रकार अनादि संतान चला आता है । जब इष्टदेवतादिक की भक्ति, जीवों की दया, उपकार मंदकषायरूप परिणमन करता है, तब तो शुभकर्म का बंध करता है । इसके निमित्त से देवादिक पर्याय पाकर कुछ सुखी होता है । जब विषय-कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमन करता है तब पाप का बंध करता है, इसके उदय से नरकादि पर्याय पाकर दु:खी होता है । इसप्रकार संसार में अशुद्धभाव से अनादिकाल से यह जीव भ्रमण करता है । जब कोई काल ऐसा आवे जिसमें जिनेश्वरदेव सर्वज्ञ वीतराग के उपदेश की प्राप्ति हो और उसका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब स्व और पर का भेदज्ञान करके शुद्ध-अशुद्ध भाव का स्वरूप जानकर अपने हित-अहित का श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण हो तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणमन को तो `हित' जाने, इसका फल संसार की निवृत्ति है, इसको जाने और अशुद्ध भाव का फल संसार है, इसको जाने, तब शुद्धभाव के ग्रहण का और अशुद्धभाव के त्याग का उपाय करे । उपाय का स्वरूप जैसे सर्वज्ञ वीतराग के आगम में कहा है, वैसे करे । इसका स्वरूप निश्चयव्यवहारात्मक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग कहा है । शुद्धस्वरूप के श्रद्धान ज्ञान चारित्र को `निश्चय' कहा है और जिनदेव सर्वज्ञ वीतराग तथा उसके वचन और उन वचनों के अनुसार प्रवर्तनवाले मुनि श्रावक की भक्ति वन्दना विनय वैयावृत्त्य करना `व्यवहार' है, क्योंकि यह मोक्षमार्ग में प्रवर्ताने को उपकारी है । उपकारी का उपकार मानना न्याय है, उपकार लोपना अन्याय है । स्वरूप के साधक अहिंसा आदि महाव्रत तथा रत्नत्रयरूप प्रवृत्ति, समिति, गुप्तिरूप प्रवर्तना और इनमें दोष लगने पर अपनी निंदा गर्हादिक करना, गुरुओं का दिया हुआ प्रायश्चित्त लेना, शक्ति के अनुसार तप करना, परिषह सहना, दशलक्षणधर्म में प्रवर्तना इत्यादि शुद्धात्मा के अनुकूल क्रियारूप प्रवर्तना, इनमें कुछ राग का अंश रहता है, तबतक शुभकर्म का बंध होता है तो भी वह प्रधान नहीं है, क्योंकि इनमें प्रवर्तनेवाले के शुभकर्म के फल की इच्छा नहीं है, इसलिए अबंधतुल्य है, इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त `व्यवहार मोक्षमार्ग है । इसमें प्रवृत्तिरूप परिणाम हैं तो भी निवृत्तिप्रधान है, इसलिए निश्चय मोक्षमार्ग में विरोध नहीं है । इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप मोक्षमार्ग का संक्षेप है । इसी को १`शुद्धभाव' कहा है । इसमें भी सम्यग्दर्शन को प्रधान कहा है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सब व्यवहार मोक्ष का कारण नहीं है और सम्यग्दर्शन के व्यवहार में जिनदेव की भक्ति प्रधान है, यह सम्यग्दर्शन को बताने के लिए मुख्य चिह्न है, इसलिए जिनभक्ति निरंतर करना और जिन आज्ञा मानकर आगमोक्त मार्ग में प्रवर्तना यह श्रीगुरु का उपदेश है । अन्य जिन-आज्ञा सिवाय सब कुमार्ग हैं, उनका प्रसंग छोड़ना, इसप्रकार करने से आत्मकल्याण होता है ।