भावपाहुड गाथा 17
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि ऐसी कुदेवयोनि पाकर वहाँ से चय कर जो मनुष्य-तिर्यंच होवे, वहाँ गर्भ में आवे उसकी इसप्रकार व्यवस्था है -
असुईबीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि ।
वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ।।१७।।
अशुचिवीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु ।
उषितोsसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर! ।।१७।।
फिर अशुचितम वीभत्स जननी गर्भ में चिरकाल तक ।
दुख सहे तूने आजतक अज्ञानवश हे मुनिप्रवर ।।१७।।
अर्थ - हे मुनिप्रवर ! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की बसती में बहुत काल रहा । कैसी है वह बसती ? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, बीभत्स (घिनावनी) है और उसमें कलिमल बहुत है अर्थात् पापरूप मलिन मल की अधिकता है ।
भावार्थ - यहाँ `मुनिप्रवर' ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियों को उपदेश है । जो मुनिपद लेकर मुनियों में प्रधान कहलावे और शुद्धात्मरूप निश्चय चारित्र के सन्मुख न हो, उसको कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारण कर चार गतियों में ही भ्रण किया, देव भी हुआ तो वहाँ से चयकर इसप्रकार के मलिन गर्भवास में आया, वहाँ भी बहुतबार रहा ।।१७।।