भावपाहुड गाथा 2
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि लिंग द्रव्य भाव के भेद से दो प्रकार का है, इनमें भावलिंग परमार्थ है -
भावो हि पढलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ।
भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा १बेन्ति ।।२।।
भाव: हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगं च जानीहि परमार्थ्।
भावो कारणभूत: गुणदोषाणां जिना २बु्रवन्ति ।।२।।
बस भाव ही गुण-दोष के कारण कहे जिनदेव ने ।
भावलिंग ही परधान हैं द्रव्यलिंग न परमार्थ है ।।२।।
अर्थ - भाव प्रथमलिंग है, इसीलिए हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग है उसको परमार्थरूप मत जान, क्योंकि गुण और दोषों का कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जिन भगवान कहते हैं ।
भावार्थ - गुण जो स्वर्ग-मोक्ष का होना और दोष अर्थात् नरकादिक संसार का होना इनका कारण भगवान ने भावों को ही कहा है, क्योंकि कारण कार्य के पहिले होता है । यहाँ मुनि-श्रावक के द्रव्यलिंग के पहिले भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव हों तो सच्चा मुनि-श्रावक होता है, इसलिए भावलिंग ही प्रधान है । प्रधान है, वही परमार्थ है, इसलिए द्र्रव्यलिंग को परमार्थ न जानना, इसप्रकार उपदेश किया है । यहाँ कोई पूछे - भाव का स्वरूप क्या है ? इसका समाधान - भाव का स्वरूप तो आचार्य आगे कहेंगे पर यहाँ भी कुछ कहते हैं - इस लोक में छहद्रव्य हैं, इनमें जीव-पुद्गल का वर्त्तन प्रकट देखने में आता है - जीव चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णस्वरूप जड़ है । इनकी अवस्था से अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिणाम को `भाव' कहते हैं । जीव का स्वभाव-परिणामरूप भाव तो दर्शन-ज्ञान है और पुद्गल कर्म के निमित्त से ज्ञान में मोह-रागद्वेष होना `विभावभाव' है । पुद्गल के स्पर्श से स्पर्शान्तर, रस से रसान्तर इत्यादि गुण से गुणान्तर होना `स्वभावभाव' है और परमाणु से स्कन्ध होना तथा स्कन्ध से अन्य स्कन्ध होना और जीव के भाव के निमित्त से कर्मरूप होना ये `विभावभाव' हैं । इसप्रकार इनके परस्पर निमित्त- नैमित्तिक भाव होते हैं । पुद्गल तो जड़ है, इसके नैमित्तिकभाव से कुछ सुख-दु:ख आदि नहीं है और जीव चेतन है, इसके निमित्त से भाव होते हैं, उनसे सुख-दुख आदि होते हैं अत: जीव को स्वभाव-भावरूप रहने का और नैमित्तिकभावरूप न प्रवर्त्तने का उपदेश है । जीव के पुद्गल कर्म के संयोग देहादिक द्रव्य का संबंध है, इस बाह्यरूप को `द्रव्य' कहते हैं और `भाव' से द्रव्य की प्रवृत्ति होती है, इसप्रकार द्रव्य की प्रवृत्ति होती है । इसप्रकार द्रव्य-भाव का स्वरूप जान कर स्वभाव में प्रवर्त्ते विभाव में न प्रवर्त्ते, उसके परमानन्द सुख होता है; और विभाव रागद्वेषमोहरूप प्रवर्त्ते, उसके संसारसंबंधी दु:ख होता है । द्रव्यरूप पुद्गल का विभाव है, इस संबंधी जीव को दु:ख सुख नहीं होता अत: भाव ही प्रधान है, ऐसा न हो तो केवली भगवान को भी सांसारिक सुख-दु:ख की प्राप्ति हो, परन्तु ऐसा नहीं है । इसप्रकार जीव के ज्ञान दर्शन तो स्वभाव है और रागद्वेषमोह ये स्वभाव-विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादिक और स्कन्धादिक स्वभाव-विभाव हैं । उनमें जीव का हित-अहितभाव प्रधान है, पुद्गलद्रव्यसंबंधी प्रधान नहीं है । बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है, उपादान के बिना निमित्त कुछ करता नहीं है । यह तो सामान्यरूप से स्वभाव का स्वरूप है और इसी का विशेष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो जीव का स्वभाव-भाव है, इसमें सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है । इसके बिना सब बाह्यक्रिया मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, ये विभाव हैं और संसार के कारण हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ।।२।।