भावपाहुड गाथा 21
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तू जल थल आदि स्थानों में सब जगह रहा है -
जलथलसिहिपवणंवरगिरिसरिदरितरुवणाइसव्वत्थ ।
वसिओ सि चिरं कालं तिहुवणमज्झे अणप्पवसो ।।२१।।
जलस्थलशिखिपवनांवरगिरिसरिद्दरीतरुवनादिषु सर्वत्र ।
उचितोsपि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवश: ।।२१।।
परवश हुआ यह रह रहा चिरकाल से आकाश में ।
थल अनल जल तरु अनिल उपवन गहन वन गिरि गुफा में ।।२१।।
अर्थ - हे जीव ! तू जल में, थल अर्थात् भूमि में, शिखि अर्थात् अग्नि में, पवन में, अम्बर अर्थात् आकाश में, गिरि अर्थात् पर्वत में, सरित् अर्थात् नदी में, दरी अर्थात् पर्वत की गुफा में, तरु अर्थात् वृक्षों में, वनों में और अधिक क्या कहें सब ही स्थानों में, तीनलोक में अनात्मवश अर्थात् पराधीनवश होकर बहुत काल तक रहा अर्थात् निवास किया ।
भावार्थ - निज शुद्धात्मा की भावना बिना कर्म के आधीन होकर तीन लोक में सर्व दु:खसहित सर्वत्र निवास किया ।।२१।।