भावपाहुड गाथा 22
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं कि हे जीव ! तूने इस लोक में सर्व पुद्गल भक्षण किये तो भी तृप्त नहीं हुआ -
गसियाइं पुग्गलाइं भुवणोदरवत्तियाइं सव्वाइं ।
पत्तो सि तो ण तित्तिं पुणरुत्तं ताइं भुञ्जंतो ।।२२।।
ग्रसिता: पुद्गला: भुवनोदरवर्तिन: सर्वे ।
प्राप्तोsसि तन्न तृप्तिं पुनरुक्तान् तान् भुंजान: ।।२२।।
पुद्गल सभी भक्षण किये उपलब्ध हैं जो लोक में ।
बहु बार भक्षण किये पर तृप्ति मिली न रंच भी ।।२२।।
अर्थ - हे जीव ! तूने इस लोक के उदर में वर्तते जो पुद्गल स्कन्ध, उन सबको ग्रसे अर्थात् भक्षण किये और उन ही को पुनरुक्त अर्थात् बारबार भोगता हुआ भी तृप्ति को प्राप्त न हुआ ।