भावपाहुड गाथा 23
From जैनकोष
फिर कहते हैं -
तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाए पीडिएण तुे ।
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ।।२३।।
त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णाया पीडितेन त्वया ।
तदपि न तृष्णाछेद: जात: चिन्तय भवमथनम् ।।२३।।
त्रैलोक्य में उपलब्ध जल सब तृषित हो तूने पिया ।
पर प्यास फिर भी ना बुझी अब आत्मचिंतन में लगो ।।२३।।
अर्थ - हे जीव ! तूने इस लोक में तृष्णा से पीड़ित होकर तीनलोक का समस्त जल पिया तो भी तृषा का व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिए तू इस संसार का मंथन अर्थात् तेरे संसार का नाश हो, इसप्रकार निश्चय रत्नत्रय का चिन्तन कर ।
भावार्थ - संसार में किसी भी तरह तृप्ति नहीं है, जैसे अपने संसार का अभाव हो वैसे चिन्तन करना अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को धारण करना, सेवन करना यह उपदेश है ।।२३।।