भावपाहुड गाथा 24
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
गहिउज्झियाइं मुणिवर कलेवराइं तुमे अणेयाइं ।
ताणं णत्थि पमाणं अणंतभवसायरे धीर ।।२४।।
गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि ।
तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर! ।।२४।।
जिस देह में तू रम रहा ऐसी अनन्ती देह तो ।
मूरख अनेकों बार तूने प्राप्त करके छोड़ दीं ।।२४।।
अर्थ - हे मुनिवर ! हे धीर ! तूने इस अनन्त भवसागर में कलेवर अर्थात् शरीर अनेक ग्रहण किये और छोड़े, उनका परिमाण नहीं है ।
भावार्थ - हे मुनिप्रधान ! तू इस शरीर से कुछ स्नेह करना चाहता है तो इस संसार में इतने शरीर छोड़े और ग्रहण किये कि उनका कुछ परिमाण भी नहीं किया जा सकता है ।