भावपाहुड गाथा 28
From जैनकोष
आगे निगोद के दु:ख को कहते हैं -
छत्तीस तिण्णि सया छावटि्ठसहस्सवारमरणाणि ।
अंतोुहुत्तमज्झे पत्तो सि निगोयवासम्मि ।।२८।।
षट्त्रिंशत् त्रीणि शतानि षट्षष्टिसहस्रबारमरणानि ।
अन्तर्मुहूर्त ध्ये प्राप्तोsसि निकोतवासे ।।२८।।
इस जीव ने नीगोद में अन्तरमुहूरत काल में ।
छयासठ सहस अर तीन सौ छत्तीस भव धारण किये ।।२८।।
अर्थ - हे आत्मन् ! तू निगोद के वास में एक अन्तर्मुहूर्त में छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरण को प्राप्त हुआ ।
भावार्थ - निगोद में एक श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण आयु पाता है । वहाँ एक मुहूर्त्त के सैंतीससौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास गिनते हैं । उनमें छत्तीससौ पिच्यासी श्वासोच्छ्वास और एक श्वास के तीसरे भाग के छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार निगोद में जन्म मरण होता है । इसका दु:ख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये बिना मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत होकर सहता है ।
भावार्थ - अंतर्मुहूर्त्त में छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण कहा, वह अठ्यासी श्वास कम मुहूर्त इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त में जानना चाहिए ।।२८।।
(विशेषार्थ - गाथामें आये हुए `निगोद वासम्मि' शब्द की संस्कृत छाया में `निगोत वासे' है । निगोद शब्द एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवों के साधारण भेद में रूढ़ है, जबकि निगोत शब्द पाँचों इन्द्रियों के सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के लिए प्रयुक्त होता है । अत: यहाँ जो ६६३३६ बार मरण की संख्या है, वह पाँचों इन्द्रियों को सम्मिलित समझना चाहिए ।।२८।।)