भावपाहुड गाथा 33
From जैनकोष
आगे यह जीव संसार में भ्रमण करता है, उस भ्रण के परावर्तन का स्वरूप मन में धारण कर निरूपण करते हैं । प्रथम ही सामान्यरूप से लोक के प्रदेशों की अपेक्षा से कहते हैं -
सो णत्थि दव्वसवणो परमाणुपमाणमेत्तओ णिलओ ।
जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो ।।३३।।
स: नास्ति द्रव्यश्रमण: परमाणुप्रमाणमात्रो निलय: ।
यत्र न जात: न मृत: त्रिलोकप्रमाणक: सर्व: ।।३३।।
अर्थ - यह जीव द्रव्यलिंग का धारक मुनिपना होते हुए भी जो तीनलोक प्रमाण सर्वस्थान
हैं, उनमें एक परमाणुपरिमाण एक प्रदेशमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है कि जहाँ जन्म-मरण न किया हो ।
भावार्थ - द्रव्यलिंग धारण करके भी इस जीव ने सर्व लोक में अनन्तबार जन्म और मरण किये, किन्तु ऐसा कोई प्रदेश शेष न रहा कि जिसमें जन्म और मरण न किये हों । इसप्रकार भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मोक्ष की (निज परमात्मदशा की) प्राप्ति नहीं हुई -
ऐसा जानना ।।३३।।