भावपाहुड गाथा 35
From जैनकोष
आगे पुद्गल द्रव्य को प्रधानकर भ्रमण कहते हैं -
पडिदेससमयपुग्गलआउगपरिणामणामकालट्ठं ।
गहिउज्झियाइं बहुसो अणंतभवसायरे २जीव ।।३५।।
प्रतिदेशसमयपुद्गलायु: परिणामनामकास्थम् ।
गृहीतोज्झितानि बहुश: अनन्तभवसागरे जीव: ।।३५।।
परिणाम पुद्गल आयु एवं समय काल प्रदेश में ।
तनरूप पुद्गल ग्रहे-त्यागे जीव ने इस लोक में ।।३५।।
अर्थ - इस जीव ने इस अनन्त अपार भवसमुद्र में लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उन प्रति समय समय और पर्याय के आयुप्रमाण काल और अपने जैसा योगकषाय के परिणमनस्वरूप परिणाम और जैसा गतिजाति आदि नामकर्म के उदय से हुआ नाम और काल जैसा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी उनमें पुद्गल के परमाणुरूप स्कन्ध उनको बहुत बार; अनन्त बार ग्रहण किये और छोड़े ।
भावार्थ - भावलिंग बिना लोक में जितने पुद्गल स्कन्ध हैं, उन सबको ही ग्रहण किये और छोड़े तो भी मुक्त न हुआ ।।३५।।