भावपाहुड गाथा 39
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि अपवित्र गर्भवास में भी रहा -
पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले।
उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं ।।३९।।
पित्तांत्रमूत्रफेफसयकृद्रुधिरखरिसकृमिजाले।
उदरे उषितोsसि चिरं नवदशमासै: प्राप्तै: ।।३९।।
कृमिकलित मज्जा-मांस-मज्जित मलिन महिला उदर में ।
नवमास तक कई बार आतम तू रहा है आजतक ।।३९।।
अर्थ - हे मुने ! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास प्राप्त कर रहा । कैसा है उदर ? जिसमें पित्त और आंतों से वेष्टित, मूत्र का स्रवण, फेफस अर्थात् जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कलिज्ज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मल से मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवों के समूह ये सब पाये जाते हैं, इसप्रकार स्त्री के उदर में बहुत बार रहा ।।३९।।