भावपाहुड गाथा 4
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि करोड़ों भवों में तप करे तो भी भाव बिना सिद्धि नहीं है -
भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ।।४।।
भावरहित: न सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी ।
जन्मान्तराणि बहुश: लंबितहस्त: गलितवस्त्र: ।।४।।
वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें ।
पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें ।।४ ।।
अर्थ - यदि कई जन्मान्तरों तक कोडाकोडि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर, वस्त्रादिक का त्याग करके तपश्चरण करे तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है ।
भावार्थ - भाव में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप विभाव रहित सम्यग्दर्शनज्ञान- चारित्रस्वरूप स्वभाव में प्रवृत्ति न हो तो कोड़ाकोड़ि भव तक कायोत्सर्गपूर्वक नग्नमुद्रा धारणकर तपश्चरण करे तो भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है, इसप्रकार भावों में सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप भाव प्रधान हैं और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना ज्ञान-चारित्र मिथ्या कहे हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ।।४।।