भावपाहुड गाथा 41
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि गर्भ से निकलकर इसप्रकार बालकपन भोगा -
सिसुकाले च अयाणे असुईज्झम्मि लोलिओ सि तुं ।
असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण ।।४१।।
शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोsसि त्वम् ।
अशुचि: अशिता बहुश: मुनिवर ! बालत्वप्राप्तेन ।।४१।।
शिशुकाल में अज्ञान से मल-मूत्र में सोता रहा ।
अब अधिक क्या बोलें अरे मल-मूत्र ही खाता रहा ।।४१।।
अर्थ - हे मुनिवर ! तू बचपन के समय में अज्ञान अवस्था में अशुचि (अपवित्र) स्थानों में अशुचि के बीच लेटा और बहुत बार अशुचि वस्तु ही खाई, बचपन को पाकर इसप्रकार चेष्टायें कीं ।
भावार्थ - यहाँ `मुनिवर' इसप्रकार सम्बोधन है वह पहिले के समान जानना, बाह्य आचरण सहित मुनि हो उसी को यहाँ प्रधानरूप से उपदेश है कि बाह्य आचरण किया वह तो बड़ा कार्य किया, परन्तु भावों के बिना यह निष्फल है, इसलिए भाव के सन्मुख रहना, भावों के बिना ही ये अपवित्र स्थान मिले हैं ।।४१।।