भावपाहुड गाथा 43
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो कुटुम्ब से छूटा वह नहीं छूटा, भाव से छूटे हुए को ही छूटा कहते हैं-
भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण ।
इय भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर ।।४३।।
भावविमुक्त: मुक्त: न च मुक्त: बांधवादिमित्रेण ।
इति भावयित्वा उज्झय गन्धमाभ्यन्तरं धीर! ।।४३।।
परिवारमुक्ती मुक्ति ना मुक्ती वही जो भाव से ।
यह जानकर हे आत्मन् ! तू छोड़ अन्तरवासना ।।४३।।
अर्थ - जो मुनि भावों से मुक्त हुआ उसी को मुक्त कहते हैं और बांधव आदि कुटुम्ब तथा मित्र आदि से मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते हैं, इसलिए हे धीर मुनि ! तू इसप्रकार जानकर अभ्यन्तर की वासना को छोड़ ।
भावार्थ - जो बाह्य बांधव, कुटुम्ब तथा मित्र इनको छोड़कर निर्ग्रन्थ हुआ और अभ्यन्तर का ममत्व भावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट में रागद्वेष वासना न छूटी तो उसको निर्ग्रन्थ नहीं कहते हैं । अभ्यन्तर वासना छूटने पर निर्ग्रन्थ होता है, इसलिए यह उपदेश है कि अभ्यन्तर मिथ्यात्व कषाय छोड़कर भावमुनि बनना चाहिए ।।४३।।