भावपाहुड गाथा 44
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो पहिले मुनि हुए उन्होंने भावशुद्धि बिना सिद्धि नहीं पाई है । उनका उदाहरणमात्र नाम कहते हैं । प्रथम ही बाहुबली का उदाहरण कहते हैं -
देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर! ।
अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं ।।४४।।
देहादित्यक्तसंग: मानकषायेन कलुषित: धीर! ।
आतापनेन जात: बाहुबली कियन्तं कालम् ।।४४।।
बाहुबली ने मान बस घरवार ही सब छोड़कर ।
तप तपा बारह मास तक ना प्राप्ति केवलज्ञान की ।।४४।।
अर्थ - देखो, बाहुबली श्री ऋषभदेव का पुत्र देहादिक परिग्रह को छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनि बन गया तो भी मानकषाय से कलुष परिणामरूप होकर कुछ समय तक आतापन योग धारणकर स्थित हो गया, फिर भी सिद्धि नहीं पाई ।
भावार्थ - बाहुबली से भरतचक्रवर्ती ने विरोध कर युद्ध आरंभ किया, भरत का अपमान हुआ । उसके बाद बाहुबली विरक्त होकर निर्ग्रन्थ मुनि बन गए, परन्तु कुछ मानकषाय की कलुषता रही कि भरत की भूमि पर मैं कैसे रहूँ? तब कायोत्सर्ग योग से एक वर्ष तक खड़े रहे, परन्तु केवलज्ञान नहीं पाया । पीछे कलुषता मिटी तब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इसलिए कहते हैं कि ऐसे महान पुरुष बड़ी शक्ति के धारक ने भी भावशुद्धि के बिना सिद्धि नहीं पाई तब अन्य की क्या बात ? इसलिए भावों को शुद्ध करना चाहिए, यह उपदेश है ।।४४।।