भावपाहुड गाथा 48
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि द्रव्यमात्र से लिंगी नहीं होता है, भाव से होता है -
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण ।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण ।।४८।।
भावेन भवति लिंगी न हि भवति लिंगी द्रव्यमात्रेण ।
तस्मात् कुर्या: भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन ।।४८।।
भाव से ही लिंगी हो द्रवलिंग से लिंगी नहीं ।
लिंगभाव ही धारण करो द्रवलिंग से क्या कार्य हो ।।४८।।
अर्थ - लिंगी होता है सो भावलिंग ही से होता है, द्रव्यलिंग से लिंगी नहीं होता है, यह प्रकट है, इसलिए भावलिंग ही धारण करना, द्रव्यलिंग से क्या सिद्ध होता है ?
भावार्थ - आचार्य कहते हैं कि इससे अधिक क्या कहा जावे, भावलिंग बिना `लिंगी' नाम ही नहीं होता है, क्योंकि यह प्रगट है कि भाव शुद्ध न देखे तब लोग ही कहें कि काहे का मुनि है? कपटी है । द्रव्यलिंग से कुछ सिद्धि नहीं है, इसलिए भावलिंग ही धारण करने योग्य है ।।४८।।