भावपाहुड गाथा 50
From जैनकोष
आगे इस ही अर्थ पर दीपायन मुनि का उदाहरण कहते हैं -
अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपब्भट्ठो ।
दीवायणो त्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ ।।५०।।
अपर: अपि द्रव्यश्रमण: दर्शनवरज्ञानचरणप्रभ्रष्ट: ।
दीपायन इति नाम अनन्तसांसारिक: जात: ।।५०।।
इस ही तरह द्रवलिंगी द्वीपायन मुनी भी भ्रष्ट हो ।
दुर्गति गमनकर दुख सहे अर अनंत संसारी हुए ।।५०।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जैसे पहिले बाहु मुनि कहा वैसे ही और भी दीपायन नाम का द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र से भ्रष्ट होकर अनंतसंसारी हुआ है ।
भावार्थ - पहिले की तरह इसकी कथा संक्षेप से इसप्रकार है - नौंवे बलभद्र ने श्रीनेमिनाथतीथ र्ंकर से पूछा कि हे स्वामिन् ! यह द्वारकापुरी समुद्र में है इसकी स्थिति कितने समय तक है ? तब भगवान ने कहा कि रोहिणी का भाई दीपायन तेरा मामा बारह वर्ष पीछे मद्य के निमित्त से क्रोध करके इस पुरी को दग्ध करेगा । इसप्रकार भगवान के वचन सुन निश्चय कर दीपायन दीक्षा लेकर पूर्वदेश में चला गया । बारह वर्ष व्यतीत करने के लिए तप करना शुरू किया और बलभद्र नारायण ने द्वारिका में मद्यनिषेध की घोषणा करा दी । मद्य के बरतन तथा उसकी सामग्री मद्य बनानेवालों ने बाहर पर्वतादि में फेंक दी । तब बरतनों की मदिरा तथा मद्य की सामग्री जल के गर्तो में फैल गई । फिर बारह वर्ष बीते जानकर दीपायन द्वारिका आकर, नगर के बाहर आतापन योग धारण कर स्थित हुए । भगवान के वचन की प्रतीति न रखी । पीछे शंभवकुमारादि क्रीड़ा करते हुए प्यासे होकर कुंडों में जल जानकर पी गये । उस मद्य के निमित्त से कुमार उन्मत्त हो गये । वहाँ दीपायन मुनि को खड़ा देखकर कहने लगे - `यह द्वारिका को भस्म करनेवाला दीपायन है' इसप्रकार कहकर उसको पाषाणादिक से मारने लगे । तब दीपायन भूमि पर गिर पड़ा, उसको क्रोध उत्पन्न हो गया, उसके निमित्त से द्वारिका जलकर भस्म हो गई । इसप्रकार दीपायन भावशुद्धि के बिना अनन्त संसारी हुआ ।।५०।।