भावपाहुड गाथा 54
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को सामान्यरूप से कहते हैं -
भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण ।
कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण ।।५४।।
भावेन भवति नग्न: बहिलिंगेन किं च नग्नेन ।
कर्मप्रकृतीनां निकरं नाशयति भावेन द्रव्येण ।।५४।।
भाव से हो नग्न तन से नग्नता किस काम की ।
भाव एवं द्रव्य से हो नाश कर्मकलंक का ।।५४।।
अर्थ - भाव से नग्न होता है, बाह्य नग्नलिंग से क्या कार्य होता है ? अर्थात् नहीं होता है, क्योंकि भावसहित द्रव्यलिंग से कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है ।
भावार्थ - आत्मा के कर्मप्रकृति के नाश से निर्जरा तथा मोक्ष होना कार्य है । यह कार्य द्रव्यलिंग से नहीं होता । भावसहित द्रव्यलिंग होने पर कर्म की निर्जरा नामक कार्य होता है । केवल द्रव्यलिंग से तो नहीं होता है, इसलिए भावसहित द्रव्यलिंग धारण करने का यह उपदेश है ।।५४।।