भावपाहुड गाथा 57
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को स्पष्ट करते हैं -
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवटि्ठदो ।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे ।।५७।।
ममत्वं परिवर्जामि निर्मत्वमुपस्थित: ।
आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि ।।५७।।
निज आत्म का अवलम्ब ले मैं और सबको छोड़ दूँ ।
अर छोड़ ममताभाव को निर्मत्व को धारण करूँ ।।५७।।
अर्थ - भावलिंगी मुनि के इसप्रकार के भाव होते हैं - मैं परद्रव्य और परभावों से ममत्व (अपना मानना) को छोड़ता हूँ और मेरा निजभाव ममत्व रहित है उसको अंगीकार कर स्थित हूँ । अब मुझे आत्मा का ही अवलंबन है, अन्य सभी को छोड़ता हूँ ।
भावार्थ - सब परद्रव्यों का आलम्बन छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो ऐसा `भावलिंग' है ।।५७।।