भावपाहुड गाथा 59
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं -
( अनुष्टुप् श्लोक )
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।५९।।
एक: मे शाश्वत: आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षण: ।
शेषा: मे बाह्या: भावा: सर्वे संयोगलक्षणा: ।।५९ ।।
अरे मेरा एक शाश्वत आतमा दृगज्ञानमय ।
अवशेष जो हैं भाव वे संयोगलक्षण जानने ।।५९।।
अर्थ - भावलिंगी मुनि विचारता है कि ज्ञान, दर्शन लक्षणरूप और शाश्वत अर्थात् नित्य ऐसा आत्मा है वही एक मेरा है । शेष भाव हैं, वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब ही संयोगस्वरूप हैं, परद्रव्य हैं ।
भावार्थ - ज्ञानदर्शनस्वरूप नित्य एक आत्मा है, वह तो मेरा रूप है, एक स्वरूप है और अन्य परद्रव्य हैं, वे मुझसे बाह्य हैं, सब संयोगस्वरूप हैं, भिन्न हैं । यह भावना भावलिंगी मुनि के है ।।५९।।