भावपाहुड गाथा 62
From जैनकोष
आगे जीव का स्वरूप सर्वज्ञदेव ने कहा है, वह कहते हैं -
जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहावो य चेयणासहिओ ।
सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो ।।६२।।
जीव: जिनप्रज्ञप्त: ज्ञानस्वभाव: च चेतनासहित: ।
स: जीव: ज्ञातव्य: कर्मक्षयकरणनिमित्त: ।।६२।।
चेतना से सहित ज्ञानस्वभावमय यह आतमा ।
कर्मक्षय का हेतु यह है यह कहें परमातमा ।।६२।।
अर्थ - जिन सर्वज्ञदेव ने जीव का स्वरूप इसप्रकार कहा है - जीव है वह चेतनासहित है और ज्ञानस्वभाव है, इसप्रकार जीव की भावना करना, जो कर्म के क्षय के निमित्त जानना चाहिए ।
भावार्थ - जीव का चेतनासहित विशेषण करने से तो चार्वाक जीव को चेतनासहित नहीं मानता है, उसका निराकरण है । ज्ञानस्वभाव विशेषण से सांख्यमती ज्ञान को प्रधान का धर्म मानता है, जीव को उदासीन नित्य चेतनारूप मानता है, उसका निराकरण है और नैयायिकमती गुण-गुणी का भेद मानकर ज्ञान को सदा भिन्न मानता है, उसका निराकरण है । ऐसे जीव के स्वरूप को भाना कर्म के क्षय के निमित्त होता है, अन्य प्रकार मिथ्याभाव है ।।६२।।