भावपाहुड गाथा 64
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो जीव का स्वरूप वचन के अगोचर है और अनुभवगम्य है, वह इसप्रकार है -
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।।६४।।
अरसमरूपमगंधं अव्यक्तं चेतनागुणं अशब्दम् ।
जानीहि अलिंगग्रहणं जीवं अनिर्दिष्टसंस्थानम् ।।६४।।
चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है ।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।।६४।।
अर्थ - हे भव्य ! तू जीव का स्वरूप इसप्रकार जान कैसा है ? अरस अर्थात् पाँच प्रकार के खट्टे, मीठे, कडुवे, कषायले और खारे रस से रहित है । काला, पीला, लाल, सफेद और हरा इसप्रकार अरूप अर्थात् पाँच प्रकार के रूप से रहित है । दो प्रकार की गंध से रहित है । अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों के गोचर व्यक्त नहीं है । चेतना गुणवाला है, अशब्द अर्थात् शब्दरहित है । अलिंगग्रहण अर्थात् जिसका कोई चिह्न इन्द्रिय द्वारा ग्रहण में नहीं आता है । अनिर्दिष्ट संस्थान अर्थात् चोकोर-गोल आदि कुछ आकार उसका कहा नहीं जाता है, इसप्रकार जीव जानो ।
भावार्थ - रस, रूप, गंध, शब्द ये तो पुद्गल के गुण हैं, इनका निषेधरूप जीव कहा, अव्यक्त अलिंगग्रहण अनिर्दिष्टसंस्थान कहा, इसप्रकार ये भी पुद्गल के स्वभाव की अपेक्षा से निषेधरूप ही जीव कहा और चेतना गुण कहा तो यह जीव का विधिरूप कहा । निषेध अपेक्षा तो वचन के अगोचर जानना और विधि अपेक्षा स्वसंवेदन गोचर जानना । इसप्रकार जीव का स्वरूप जानकर अनुभवगोचर करना । यह गाथा समयसार में ४९, प्रवचनसार में १७२, नियमसार में ४६, पंचास्तिकाय में १२७, धवला टीका पु. ३ पृ. २, लघु द्रव्य संग्रह गाथा ५ आदि में भी है । इसका व्याख्यान टीकाकारों ने विशेष कहा है वह वहाँ से जानना चाहिए ।।६४।।