भावपाहुड गाथा 66
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि पढ़ना-सुनना भी भाव बिना कुछ नहीं है -
पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण ।
भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं ।।६६।।
पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन ।
भाव: कारणभूत: सागारानगारभूतानाम् ।।६६।।
श्रमण श्रावकपने का है मूल कारण भाव ही ।
क्योंकि पठन अर श्रवण से भी कुछ नहीं हो भावबिन ।।६६।।
अर्थ - भावरहित पढ़ने सुनने से क्या होता है ? अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है, इसलिए श्रावकत्व तथा मुनित्व इनका कारणभूत भाव ही है ।
भावार्थ - मोक्षमार्ग में एकदेश, सर्वदेश व्रतों की प्रवृत्तिरूप मुनि-श्रावकपना है, उन दोनों का कारणभूत निश्चय सम्यग्दर्शनादिक भाव हैं । भाव बिना व्रतक्रिया की कथनी कुछ कार्यकारी नहीं है, इसलिए ऐसा उपदेश है कि भाव बिना पढ़ने-सुनने आदि से क्या होता है ? केवल खेदमात्र है, इसलिए भावसहित जो करो वह सफल है । यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जाने कि पढ़ना-सुनना ही ज्ञान है तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर सुनकर आपको ज्ञानस्वरूप जानकर अनुभव करे तब भाव जाना जाता है, इसलिए बारबार भावना से भाव लगाने पर ही सिद्धि है ।।६६ ।।