भावपाहुड गाथा 68
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए केवल नग्नपने की निष्फलता दिखाते हैं -
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ ।
णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ।।६८।।
नग्न: प्राप्नोति दु:खं नग्न: संसारसागरे भ्रति ।
नग्न: न लभते बोधिं जिनभावनावर्जित: सुचिरं ।।६८।।
हों नग्न पर दुख सहें अर संसारसागर में रुलें ।
जिन भावना बिन नग्नतन भी बोधि को पाते नहीं ।।६८।।
अर्थ - नग्न सदा दु:ख पाता है, नग्न सदा संसार समुद्र में भ्रमण करता है और नग्न बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप स्वानुभव को नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न जो जिनभावना से रहित है ।
भावार्थ - `जिनभावना' जो सम्यग्दर्शन-भावना उससे रहित जो जीव है, वह नग्न भी रहे तो बोधि जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाता है । इसीलिए संसारसमुद्र में भ्रमण करता हुआ संसार में ही दु:ख को पाता है तथा वर्तान में भी जो पुरुष नग्न होता है वह दु:ख ही को पाता है । सुख तो भाव नग्न हो वे मुनि ही पाते हैं ।।६८।।