भावपाहुड गाथा 71
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो भावरहित नग्न मुनि है, वह हास्य का स्थान है -
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य
१ उ च् छ ु फ ु ल् ल स म ा े ।
णिप्फेलग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ।।७१।।
धर्मे निप्रवास: दोषावास: च इक्षुपुष्पसम: ।
निष्फलनिर्गुणकार: नटश्रमण: नग्नरूपेण ।।७१।।
सद्धर्म का न वास जह तह दोष का आवास है ।
है निरर्थक निष्फल सभी सद्ज्ञान बिन हे नटश्रमण ।।७१।।
अर्थ - धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दसलक्षणस्वरूप में जिसका वास नहीं है वह जीव दोषों का आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं, वह इक्षु के फूल के समान है, जिसके न तो कुछ फल ही लगते हैं और न उसमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं । इसलिए ऐसा मुनि तो नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचनेवाले भाँड के स्वांग के समान है ।
भावार्थ - जिसके धर्म की वासना नहीं है, उसमें क्रोधादिक दोष ही रहते हैं । यदि वह दिगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनि इक्षु के फूल के समान निर्गुण और निष्फल है, ऐसे मुनि के मोक्षरूप फल नहीं लगते हैं । सम्यग्ज्ञानादिक गुण जिसमें नहीं हैं, वह नग्न होने पर भांड जैसा स्वांग दीखता है । भांड भी नाचे तब श्रंगारादिक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे तब हास्य को पावे, वैसे ही केवल द्रव्यनग्न हास्य का स्थान है ।।७१।।