भावपाहुड गाथा 77
From जैनकोष
सुद्धं सुद्धसहावं अप्पा अप्पम्मि तं च णायव्वं ।
इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह ।।७७।।
शुद्ध: शुद्धस्वभाव: आत्मा आत्मनि स: च ज्ञातव्य: ।
इति जिनवरै: भणितं य: श्रेयान् तं समाचर ।।७७।।
निज आत्मा का आत्मा में रमण शुद्धस्वभाव है ।
जो श्रेष्ठ है वह आचरो जिनदेव का आदेश यह ।।७७।।
अर्थ - शुद्ध है वह अपना शुद्धस्वभाव अपने ही में है इसप्रकार जिनवरदेव ने कहा है वह जानकर इनमें जो कल्याणरूप हो उसको अंगीकार करो ।
भावार्थ - भगवान ने भाव तीन प्रकार के कहे हैं - १. शुभ, २. अशुभ और ३. शुद्ध । अशुभ तो आर्त व रौद्र ध्यान हैं वे तो अति मलिन हैं, त्याज्य ही हैं । धर्मध्यान शुभ है इसलिये यह कथंचित् उपादेय है इससे मंदकषायरूप विशुद्ध भाव की प्राप्ति है । शुद्ध भाव है वह सर्वथा उपादेय है, क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है । इसप्रकार हेय, उपादेय जानकर त्याग और ग्रहण करना चाहिए, इसीलिए ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना - यह जिनदेव का उपदेश है ।।७७।।