भावपाहुड गाथा 8
From जैनकोष
वही कहते हैं -
भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए ।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव ।।८।।
भीषणनरकगतौ तिर्यग्गतौ कुदेवमनुष्यगत्यो: ।
प्राप्तोsसि तीव्रदु:खं भावय जिनभावनां जीव! ।।८।।
भीषण नरक तिर्यंच नर अर देवगति में भ्रण कर ।
पाये अनन्ते दु:ख अब भावो जिनेश्वर भावना ।।८।।
अर्थ - हे जीव ! तूने भीषण (भयंकर) नरकगति तथा तिर्यंचगति में और कुदेव कुमनुष्यगति में तीव्र दु:ख पाये हैं, अत: अब तू जिनभावना अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भा, इससे तेरे संसार का भ्रण मिटेगा ।
भावार्थ - आत्मा की भावना बिना चार गति के दु:ख अनादि काल से संसार में प्राप्त किये, इसलिए अब हे जीव ! तू जिनेश्वरदेव का शरण ले और शुद्धस्वरूप का बारबार भावनारूप अभ्यास कर; इससे संसार के भ्रण से रहित मोक्ष को प्राप्त करेगा, यह उपदेश है ।।८।।