भावपाहुड गाथा 82
From जैनकोष
आगे जिनधर्म की महिमा कहते हैं -
जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं ।
तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भाविभवमहणं ।।८२।।
यथा रत्नानां प्रवरं वज्रं यथा तरुगणानां गोशीरम् ।
तथा धर्माणां प्रवरं जिनधर्मं भाविभवमथनम् ।।८२।।
ज्यों श्रेष्ठ चंदन वृक्ष में हीरा रतन में श्रेष्ठ है ।
त्यों धर्म में भवभाविनाशक एक ही जिनधर्म है ।।८२।।
अर्थ - जैसे रत्नों में प्रवर (श्रेष्ठ) उत्तम वज्र (हीरा) है और जैसे तरुगण (बड़े वृक्ष) में उत्तम गोसीर (बावन चन्दन) है, वैसे ही धर्मो में उत्तम भाविभवमथन (आगामी संसार का मंथन करनेवाला) जिनधर्म है, इससे मोक्ष होता है ।
भावार्थ - `धर्म' ऐसा सामान्य नाम तो लोक में प्रसिद्ध है और लोक अनेक प्रकार से कियाकांडादिक को धर्म जानकर सेवन करता है, परन्तु परीक्षा करने पर मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला जिनधर्म ही है, अन्य सब संसार के कारण हैं । वे क्रियाकांडादिक संसार ही में रखते हैं, कदाचित् संसार के भोगों की प्राप्ति कराते हैं, तो भी फिर भोगों में लीन होता है तब एकेन्द्रियादि पर्याय पाता है तथा नरक को पाता है । ऐसे अन्य धर्म नाममात्र हैं, इसलिए उत्तम जिनधर्म ही जानना ।।८२।।