भावपाहुड गाथा 83
From जैनकोष
आगे शिष्य पूछता है कि जिनधर्म को उत्तम कहा तो धर्म का क्या स्वरूप है ? उसका स्वरूप कहते हैं कि `धर्म' इसप्रकार है -
पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे
भ ि ण य ं ।
मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।।८३।।
पूजादिषु व्रतसहितं पुण्यं हि जिनै: शासने भणितम् ।
मोहक्षोभविहीन: परिणाम: आत्मन: धर्म: ।।८३।।
व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं ।
दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म है ।।८३।।
अर्थ - जिनशासन में जिनेन्द्रदेव ने इसप्रकार कहा है कि पूजा आदिक में और व्रतसहित होना है वह तो `पुण्य'ही है तथा मोह के क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम वह `धर्म' है ।
भावार्थ - लौकिक जन तथा अन्यमती कई कहते हैं कि पूजा आदिक शुभक्रियाओं में और व्रतक्रियासहित है वह जिनधर्म है, परन्तु ऐसा नहीं है । जिनमत में जिन भगवान ने इसप्रकार कहा है कि पूजादिक में और व्रतसहित होना है वह तो `पुण्य' है, इसमें पूजा और आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्त्य आदिक समझना, यह तो देव-गुरु-शास्त्र के लिए होता है और उपवास आदिक व्रत है वह शुभक्रिया है, इनमें आत्मा का रागसहित शुभपरिणाम है उससे पुण्यकर्म होता है इसलिए इनको पुण्य कहते हैं । इसका फल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है । मोह के क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म समझिये । मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थश्रद्धान है, क्रोध-मान-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा ये छह द्वेषप्रकृति हैं और माया, लोभ, हास्य, रति ये चार तथा पुरुष, स्त्री, नपुंसक ये तीन विकार, ऐसे सात प्रकृति रागरूप हैं । इनके निमित्त से आत्मा का ज्ञान-दर्शनस्वभाव विकारसहित, क्षोभरूप, चलाचल, व्याकुल होता है इसलिए इन विकारों से रहित हो तब शुद्धदर्शनज्ञानरूप निश्चय हो वह आत्मा का `धर्म' है । इस धर्म से आत्मा के आगामी कर्म का आस्रव रुककर संवर होता है और पहिले बँधे हुए कर्मो की निर्जरा होती है । संपूर्ण निर्जरा हो जाय तब मोक्ष होता है तथा एकदेश मोह के क्षोभ की हानि होती है, इसलिए शुभपरिणाम को भी उपचार से धर्म कहते हैं और जो केवल शुभपरिणाम ही को धर्म मानकर संतुष्ट है उनको धर्म की प्राप्ति नहीं है, यह जिनमत का उपदेश है ।।८३।।