भावपाहुड गाथा 88
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि बाह्य हिंसादिक क्रिया के बिना ही अशुद्ध भाव से तंदुलमत्स्यतुल्य जीव भी सातवें नरक को गया, तब अन्य बड़े जीवों की क्या कथा ?
मच्छो वि सालिसित्थो असुद्धभावो गओ महाणरयं ।
इय णाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिच्चं ।।८८।।
मत्स्य: अपि शालिसिक्थ: अशुद्धभाव: गत: महानरकम् ।
इति ज्ञात्वा आत्मानं भावय जिनभावनां नित्यम् ।।८८।।
सप्तम नरक में गया तन्दुल मत्स्य हिंसक भाव से ।
यह जानकर हे आत्मन् ! नित करो आतमभावना ।।८८।।
अर्थ - हे भव्यजीव ! तू देख शालिसिक्थ (तन्दुल नाम का मत्स्य) वह भी अशुद्धभावस्वरूप होता हुआ महानरक (सातवें नरक) में गया, इसलिए तुझे उपदेश देते हैं कि अपनी आत्मा को जानने के लिए निरंतर जिनभावना कर ।
भावार्थ - अशुद्धभाव के माहात्म्य से तन्दुल मत्स्य जैसा अल्पजीव भी सातवें नरक को गया तो अन्य बड़े जीव क्यों न नरक जावें, इसलिए भाव शुद्ध करने का उपदेश है । भाव शुद्ध होने पर अपने और दूसरे के स्वरूप का जानना होता है । अपने और दूसरे के स्वरूप का ज्ञान जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर भाने से होता है, इसलिए जिनदेव की आज्ञा की भावना निरन्तर करना योग्य है । तन्दुल मत्स्य की कथा ऐसे है - काकन्दीपुरी का राजा सूरसेन था । वह मांसभक्षी हो गया । अत्यन्त लोलुपी, निरन्तर मांस भक्षण का अभिप्राय रखता था । उसके `पितृप्रिय' नाम का रसोईदार था । वह अनेक जीवों का मांस निरन्तर भक्षण कराता था । उसको सर्प डस गया सो मरकर स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हो गया । राजा सूरसेन भी मरकर वहाँ ही उसी महामत्स्य के कान में तंदुल मत्स्य हो गया । वहाँ महामत्स्य के मुख में अनेक जीव आवें और बाहर निकल जावें, तब तंदुल मत्स्य उनको देखकर विचार करे कि यह महामत्स्य अभागा है जो मुँह में आये हुए जीवों को खाता नहीं है । यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता तो इस समुद्र के सब जीवों को खा जाता । ऐसे भावों के पाप से जीवों को खाये बिना ही सातवें नरक में गया और महामत्स्य तो खानेवाला था सो वह तो नरक में जाय ही जाय । इसलिए अशुद्धभावसहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही, परन्तु बाह्य हिंसादिक पाप के किये बिना केवल अशुद्धभाव भी उसी के समान है, इसलिए भावों में अशुभ ध्यान छोड़कर शुभ ध्यान करना योग्य है । यहाँ ऐसा भी जानना जो पहिले राज पाया था सो पहिले पुण्य किया था उसका फल था, पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसलिए आत्मज्ञान के बिना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नहीं है ।।८८।।