भावपाहुड गाथा 89
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि भावरहित के बाह्य परिग्रह का त्यागादिक सब निष्प्रयोजन है -
बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो ।
सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ।।८९।।
बाह्यसंगत्याग: गिरिसरिद्दरीकंदरादौ आवास: ।
सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम् ।।८९।।
आतमा की भावना बिन गिरि-गुफा आवास सब ।
अर ज्ञान अध्ययन आदि सब करनी निरर्थक जानिये ।।८९।।
अर्थ - जो पुरुष भाव रहित हैं, शुद्ध आत्मा की भावना से रहित हैं और बाह्य आचरण से संतुष्ट हैं, उनके बाह्य परिग्रह का त्याग है, वह निरर्थक है । गिरि (पर्वत) दरी (पर्वत की गुफा) सरित् (नदी के पास) कंदर (पर्वत के जल से चीरा हुआ स्थान) इत्यादि स्थानों में आवास (रहना) निरर्थक है । ध्यान करना, आसन द्वारा मन को रोकना, अध्ययन (पढ़ना) ये सब निरर्थक हैं ।
भावार्थ - बाह्य क्रिया का फल आत्मज्ञान सहित हो तो सफल हो, अन्यथा सब निरर्थक है । पुण्य का फल हो तो भी संसार का ही कारण है, मोक्षफल नहीं है ।।८९।।