भावपाहुड गाथा 9
From जैनकोष
आगे चार गति के दु:खों को विशेषरूप से कहते हैं, पहिले नरकगति के दु:खों को कहते हैं-
सत्तसु णरयावासे दारुणभीमाइं असहणीयाइं ।
भुत्ताइं सुइरकालं दु:क्खाइं णिरंतरं अहियं ।।९।।
१सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि ।
भुक्तानि सुचिरकालं दु:खानि निरंतरं सोढानि२ ।।९।।
इन सात नरकों में सतत चिरकाल तक हे आत्मन् ।
दारुण भयंकर अर असह्य महान दु:ख तूने सहे ।।९।।
अर्थ - हे जीव ! तूने सात नरकभूमियों के नरक आवास बिलों में दारुण अर्थात् तीव्र तथा भयानक और असहनीय अर्थात् सहे न जावें - इसप्रकार के दु:खों को बहुत दीर्घ काल तक निरन्तर ही भोगे और सहे ।
भावार्थ - नरक की पृथ्वी सात हैं, उनमें बिल बहुत हैं, उनमें दस हजार वर्ष से लगाकर तथा एक सागर से लगाकर तेतीस सागर तक आयु है, जहाँ आयुपर्यन्त अति तीव्र दु:ख यह जीव अनन्तकाल से सहता आया है ।।९।।