भावपाहुड गाथा 92
From जैनकोष
आगे फिर कहते हैं -
तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ।।९२।।
तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवै: ग्रथितं सम्यक् ।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम् ।।९२।।
तीर्थंकरों ने कहा गणधरदेव ने गूँथा जिसे ।
शुद्धभाव से भावो निरन्तर उस अतुल श्रुतज्ञान को ।।९२।।
अर्थ - हे मुने ! तू जिस श्रुतज्ञान को तीर्थंकर भगवान् ने कहा और गणधर देवों ने गूंथा अर्थात् शास्त्ररूप रचना की, उसको सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर । कैसा है वह श्रुतज्ञान? अतुल है; इसके बराबर अन्य मत का कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है ।।९२।।