भावपाहुड गाथा 93
From जैनकोष
ऐसा करने से क्या होता है ? सो कहते हैं -
पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का ।
होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा ।।९३।।
पीत्वा ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ता ।
भवंति शिवालयवासिन: त्रिभुवनचूडामणय: सिद्धा: ।।९३।।
श्रुतज्ञानजल के पान से ही शान्त हो भवदुखतृषा ।
त्रैलोक्यचूड़ामणी शिवपद प्राप्त हो आनन्दमय ।।९३।।
अर्थ - पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जल को पीकर सिद्ध होते हैं । कैसे हैं सिद्ध । निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषा दाह शोष से रहित हैं, इसप्रकार सिद्ध होते हैं, ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है । सिद्धशिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महल में रहनेवाले हैं, लोक के शिखर पर जिनका वास है । इसीलिए कैसे हैं ? तीन भुवन के चूड़ामणि हैं, मुकुटणि हैं तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानन्द अविनाशी सुख को वे भोगते हैं । इसप्रकार वे तीन भुवन के मुकुटणि हैं ।
भावार्थ - शुद्ध भाव करके ज्ञानरूप जल पीने पर तृष्णा दाह शोष मिट जाता है, इसलिए ऐसे कहा है कि परमानन्दरूप सिद्ध होते हैं ।।९३।।