भावपाहुड गाथा 94
From जैनकोष
आगे भावशुद्धि के लिए फिर उपदेश करते हैं -
दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल का ए ण ।
सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोत्तूण ।।९४।।
दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने ! सकलकालं कायेन ।
सूत्रेण अप्रमत्त: संयमघातं प्रमुच्य ।।९४।।
जिनवरकथित बाईस परीषह सहो नित समचित्त हो ।
बचो संयमघात से हे मुनि ! नित अप्रमत्त हो ।।९४।।
अर्थ - हे मुने ! तू दस-दस-दो अर्थात् बाईस जो सुपरीषह अर्थात् अतिशय कर सहने योग्य को सूत्रेण अर्थात् जैसे जिनवचन में कहे हैं, उसी रीति से नि:प्रमादी होकर संयम का घात दूर कर और तेरे काय से सदा काल निरंतर सहन कर ।
भावार्थ - जैसे संयम न बिगड़े और प्रमाद का निवारण हो वैसे निरन्तर मुनि क्षुधा, तृषा आदिक बाईस परीषह सहन करे । इनको सहन करने का प्रयोजन सूत्र में ऐसा कहा है कि इनके सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है और संयम के मार्ग से छूटना नहीं होता है, परिणाम दृढ़ होते हैं ।।९४।।