भावपाहुड गाथा 99
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि जो भाव सहित मुनि है सो आराधना के चतुष्क को पाता है, भाव बिना वह भी संसार में भ्रमण करता है -
भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च ।
भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे ।।९९।।
भावसहितश्च मुनिन: प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च ।
भावरहितश्च मुनिवर! भ्रति चिरं दीर्घसंसारे ।।९९।।
भाववाले साधु साधे चतुर्विध आराधना ।
पर भाव विरहित भटकते चिरकाल तक संसार में ।।९९।।
अर्थ - हे मुनिवर ! जो भावसहित है सो दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप ऐसी आराधना के चतुष्क को पाता है, वह मुनियों में प्रधान है और जो भावरहित मुनि है सो बहुत काल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है ।
भावार्थ - निश्चय सम्यक्त्व का शुद्ध आत्मा का अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो भाव है, ऐसे भावसहित हो उसके चार आराधना होती है उसका फल अरहन्त सिद्ध पद है और ऐसे भाव से रहित हो उसके आराधना नहीं होती है उसका फल संसार का भ्रमण है । ऐसा जानकर भाव शुद्ध करना - यह उपदेश है ।।९९।।