मनुष्यभव
From जैनकोष
अशुभ कर्मों की मंदता से लभ्य मनुष्य-पर्याय । यहाँ जीव अनिच्छा पूर्वक शारीरिक और मानसिक दु:ख पाता है । दूसरों की सेवा करना, दरिद्रता, चिंता और शोक आदि से इस पर्याय में जो दुःख प्राप्त होते हैं वे प्रत्यक्ष नरक के समान जान पड़ते हैं । यहाँ इष्ट वियोग और अनिष्ट सयोग से जीव दु:खी होता है । इस गति के प्राणी गर्भ में चर्म के जाल से आच्छादित होकर पित्त, श्लेष्म आदि के मध्य स्थित रहते हैं । नालद्वार से च्युत माता द्वारा उपभुक्त आहार का आस्वादन करते हैं । उनके अंगोपांग संकुचित और दु:खभार से पीड़ित रहते हैं । जीवों को यह पर्याय बड़ी कठिनाई से प्राप्त होती है । महापुराण 17.29-31, पद्मपुराण - 2.164-167, 5.333-338