मृदुमति
From जैनकोष
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित पोदनपुर नगर के निवासी ब्राह्मण अग्निमुख और उसकी स्त्री शकुना का पुत्र । लोक के उलाहनों से खिन्न होकर इसे माता-पिता ने घर से निकाल दिया था । यह यौवन अवस्था में पोदनपुर आया । यहाँ रुदन करती हुई माँ शकुना को धैर्य बँधाकर उसके साथ रहने लगा । एक दिन यह शशांकनगर के राजा नंदिवर्धन के राजमहल में चोरी करने गया वहाँ राजा को अपने शशांकमुख गुरु से दीक्षा लेने का निश्चय रानी से कहते हुए सुना । यह सुनकर विषयों से विरक्त हुआ और इसने जिनदीक्षा धारण कर ली तथा तप करने लगा । इधर गुणनिधि मुनि ने दुर्गगिरि पर्वत पर निराहार चार माह का वर्षायोग समाप्त कर विधिपूर्वक जैसे ही विहार किया कि दैवयोग से यह मृदुमति मुनि वहाँ आहार के लिए आया । नगरवासियों ने इसे गुणनिधि मुनि समझकर महान् आदर-सत्कार किया । नगरवासियों के यह पूछने पर कि क्या आप वही मुनिराज है जो पर्वत के अग्रभाग पर स्थित थे तथा देवों ने जिनकी स्तुति की थी । इन्होंने इसके उत्तर में स्थिति स्पष्ट नहीं की । इस माया के कारण मरकर प्रथम तो यह स्वर्ग गया । पश्चात् जंबूद्वीप में निकुंज पर्वत के शक्लकी वन में गजराज हुआ । रावण ने इसका तिलोककंटक नाम रखा था । पद्मपुराण - 85.118-152, 163